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 मन की गांठें

भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे।

महात्मा बुद्ध समय पर सभा में पहुँचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी।

महात्मा बुद्ध ने आने के पश्चात् आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे।

वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब महात्मा बुद्ध आगे क्या करेंगे; तभी महात्मा बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, "मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?"

एक शिष्य ने उत्तर में कहा, "गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, यह वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं।"

"पर यह बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही यह बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो यह वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।”

“सत्य है!” महात्मा बुद्ध ने कहा, "अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ।" यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दूसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, “तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?”

"नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो यह गांठें और भी कस जाएंगी और इन्हें खोलना और मुश्किल हो जाएगा।" एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।

महात्मा बुद्ध ने कहा, "ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा?"

शिष्य बोला, "इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हें कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हें खोलने का प्रयास कर सकते हैं।"

"मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं, कोई मुझसे यह नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ?

प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता, उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएँ भी हल कर सकते हैं।

"इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएँ भी होंगी ही,और समस्याएँ हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें,निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा।”, महात्मा बुद्ध ने यह कहकर अपनी बात पूरी की..!!
   🙏🏼🙏🙏🏻जय जय श्री राधे🙏🏾🙏🏿🙏🏽

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